कांवड़ यात्रा कब शुरू हुई, किसने की, क्या उद्देश्य है, जानिए अनजाने तथ्य...
हर साल श्रावण मास में लाखों की तादाद में कांवडिये गंगा जल से भरी कांवड़ लेकर नंगे पांव पदयात्रा करके अपने निवास/गांव वापस लौटते हैं इस यात्राको कांवड़ यात्रा बोला जाता है। श्रावण की शिव चतुर्दशी (शिवरात्रि) के दिन गंगा जल से अपने निवास के आसपास शिव मंदिरों में शिव का अभिषेक किया जाता है।
भोलेनाथ के भक्त यूं तो सालों भर कांवड़ चढ़ाते रहते हैं लेकिन सावन में इसकी धूम कुछ ज्यादा ही रहती है क्योंकि यह महीना है भगवान शिव को समर्पित। और अब तो उत्तर भारत में खासतौर पर दिल्ली-एनसीआर कांवड़ सावन महीने की पहचान बन चुका है।
कांवड़ यात्रा का धार्मिक महत्व
धार्मिक संदर्भ में कहें तो इंसान ने अपनी स्वार्थपरक नियति से शिव को रूष्ट किया है। कांवड यात्रा का आयोजन अति सुन्दर बात है। लेकिन शिव को प्रसन्न करने के लिए इन आयोजन में भागीदारी करने वालों को इसकी महत्ता भी समझनी होगी। प्रतीकात्मक तौर पर कांवड यात्रा का संदेश इतना भर है कि आप जीवनदायिनी नदियों के लोटे भर जल से जिस भगवान शिव का अभिषेक कर रहे हें वे शिव वास्तव में सृष्टि का ही दूसरा रूप हैं। धार्मिक आस्थाओं के साथ सामाजिक सरोकारों से रची कांवड यात्रा वास्तव में जल संचय की अहमियत को उजागर करती है। कांवड यात्रा की सार्थकता तभी है जब आप जल बचाकर और नदियों के पानी का उपयोग कर अपने खेत खलिहानों की सिंचाई करें और अपने निवास स्थान पर पशु पक्षियों और पर्यावरण को पानी उपलब्ध कराएं तो प्रकृति की तरह उदार शिव सहज ही प्रसन्न होंगे।
कांवड़ यात्रा का वैज्ञानिक महत्व
कांवड़ यात्रा का धार्मिंक महत्व तो जगजाहिर है लेकिन इस कांवड़ यात्रा को वैज्ञानिकों ने उत्तम स्वास्थ्य भी जोड़ दिया है। प्रकृति के इस खूबसूरत मौसम में जब चारों तरफ हरियाली छाई रहती है तो कांवड़ यात्री भोलेनाथ को जल चढ़ाने के लिए पैदल चलते हैं। पैदल चलने से हमारे आसपास के वातावरण की कई चीजों का सकारात्मक प्रभाव हमारे मनमस्तिष्क पर पड़ता है। चारों तरफ फैली हरियाली आंखों की रोशनी बढ़ाती है । वहीं ओस की बूँदें नंगे पैरों को ठंडक देती हैं तथा सूर्य की किरणें शरीर को रोगमुक्त बनाती हैं।
कांवड़ यात्री केसरिया वस्त्र क्यों धारण करते हैं
कांवड़ यात्रा लंबी तथा कठिन होती है लेकिन लक्ष्य एक ही होता है कि महादेव को जल चढ़ाना है । व्यक्ति को इस लम्बी यात्रा के दौरान आत्मनिरीक्षण करने का मौका मिलता है। इस धार्मिक यात्रा की विशेषता यह भी है कि सभी कांवड़ यात्री केसरिया रंग के वस्त्र ही धारण करते हैं। केसरिया रंग जीवन में ओज, साहस, आस्था और गतिशीलता बढ़ाता है। कलर-थैरेपी के अनुसार यह रंग पेट की बीमारियों को दूर भगाता है। सारे कांवड़ यात्री बोल बम के सम्बोधन से एक-दूसरे का मनोबल बढ़ाते हैं। रास्ते में छोटे-बड़े गाँव, शहरों से गुजरते हैं तो स्थानीय लोग भी इन कांवड़ यात्रियों का स्वागत करते हैं।
कांवड़ यात्रा में कांवड़ के भी विभिन्न रूप होते हैं।
झूला कांवड़
एक बाँस पर दोनों ओर झूले के आकार को साधते हुए कांवड़ बनाई जाती है। गंगाजल वाले मटके या पात्र दोनों ओर बराबरी से लटके होते हैं । कांवड़ियों द्वारा विश्राम या भोजन के समय इस कांवड़ को जमीन पर नहीं रखा जाता । पेड़ या किसी अन्य स्थान पर इसे टांग दिया जाता है।
खड़ी कांवड़
खड़ी कांवड़ - खड़ी कांवड़ को कन्धे पर ही रखा जाता है। इसे न तो जमीन पर रख सकते हैं ना ही टांगते हैं। यदि कांवड़ियों को विश्राम या भोजन करना हो तो इसे किसी अन्य शिव सेवक को देना पड़ता है। यह कांवड़ यात्रा बहुत कठिन होती है।
झाँकियों वाली कांवड़
इस कांवड़ यात्रा में काविड़ियों का एक ग्रुप होता है । ट्रक, जीप या छोटे आकार की कोई खुली गाड़ी में शिव भगवान के बड़े-बड़े फोटो लाकर उस पर रंगीन रोशनी की जाती है । कहीं-कहीं फूलों से भी इसका श्रृंगार करते हैं। इसमें गाना-बजाना भी चलता है । कई बार काफी लोग इसे देखने आ जाते हैं।
डाक कांवड़
इसमें भी कई कांवड़ियों का ग्रुप होता है जो एक ट्रक या जीप में सवार रहता है। गाना-बजाना एवं लाइटिंग से सुसज्जित गाड़ियां रहती हैं । जब मन्दिर की दूरी 24 से 36 घंटे रह जाते हैं तो ये कांवड़िये कांवड़ में जल लेकर दौड़ते हैं। जल लेकर लगातार दौड़ना बड़ी कठिन चुनौती होती है। कुछ कांवड़िये व्रत लेकर ऐसी कठिन यात्रा भी शिवजी की महिमा से पूर्ण करते हैं।
कांवड़ यात्रा 2019 - 17 जुलाई से 30 जुलाई
जानें कैसे शुरू हुई कांवड़ परंपरा
बहुत कम लोग जानते हैं कि शिव जी सबसे पहले कांवड़ किसने चढ़ाया और इसकी शुरुआत कैसे हुई। कुछ कथाओं के भगवान परशुराम ने अपने आराध्य देव शिव के नियमित पूजन के लिए पुरा महादेव में मंदिर की स्थापना कर कांवड़ में गंगाजल से पूजन कर कांवड़ परंपरा की शुरुआत की, जो आज भी देशभर में काफी प्रचलित है. कांवड़ की परंपरा चलाने वाले भगवान परशुराम की पूजा भी श्रावण मास में की जानी चाहिए.
भगवान परशुराम श्रावण मास के प्रत्येक सोमवार को कांवड़ में जल ले जाकर शिव की पूजा-अर्चना करते थे. शिव को श्रावण का सोमवार विशेष रूप से प्रिय है. श्रावण में भगवान आशुतोष का गंगाजल व पंचामृत से अभिषेक करने से शीतलता मिलती है.
भगवान शिव की हरियाली से पूजा करने से विशेष पुण्य मिलता है. खासतौर से श्रावण मास के सोमवार को शिव का पूजन बेलपत्र, भांग, धतूरे, दूर्वाकुर आक्खे के पुष्प और लाल कनेर के पुष्पों से पूजन करने का प्रावधान है. इसके अलावा पांच तरह के जो अमृत बताए गए हैं उनमें दूध, दही, शहद, घी, शर्करा को मिलाकर बनाए गए पंचामृत से भगवान आशुतोष की पूजा कल्याणकारी होती है.
भगवान शिव को बेलपत्र चढ़ाने के लिए एक दिन पूर्व सायंकाल से पहले तोड़कर रखना चाहिए. सोमवार को बेलपत्र तोड़कर भगवान पर चढ़ाया जाना उचित नहीं है. भगवान आशुतोष के साथ शिव परिवार, नंदी व भगवान परशुराम की पूजा भी श्रावण मास में लाभकारी है.
शिव की पूजा से पहले नंदी व परशुराम की पूजा की जानी चाहिए. शिव का जलाभिषेक नियमित रूप से करने से वैभव और सुख समृद्धि की प्राप्ति होती है.